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एक कोशिश...

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नज़्म  का  कुछ इस तरह हुआ, छूट गए लव्ज़ किसी  निशां पर ख़ामोशी मेरी इतनी बेपरवाह नहीं, झुलसते हुए अरमानो को देखो कशमकश यूँ चला सिलसिलों का  पहले दूसरों से डर लगता था, अब खुद से लगता है   इलज़ाम किसको दें, नादान तुम भी थे, हम भी.. मेरा अक्स  मुझे यूँ पुकारता है, जैसे दरिया को समंदर डूब जाऊं इस आशिक़ी में, जैसे हो तू पैगम्बर  गिरी जो तस्वीर, पता ना चला, अक़्स यूँ धुंदला जो था।